मांगलिक कार्यो का उचित समय
देवउठनी एकादशी :- देवउठनी एकादशी में मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयन हो जाता है। भाद्रपद शुक्ल एकादशी को देव करवट बदलते है, कार्तिक शुक्ल एकादशी को देव जाग जाते है। देवताओ के शयनकाल को चातुर्मास काल कहा जाता है। एवं इस दौरान कोई मांगलिक कार्य करना वर्जित है। देव एवं राक्षस आपस में दुश्मन है, देवो से राक्षसों की और राक्षसों से देवो की महत्ता है। दिन में देवता बलवान होते है तो रात्रि में राक्षस। चंद्रमास के शुक्ल पक्ष में देवता बलशाली होते है तो कृष्णपक्ष में राक्षस बलशाली होते है। भगवान विष्णु दोनों क्षेत्रो में 6 – 6 माह बराबर रहते है। हमारे शरीर में भी प्रकृति की तरह देवीय और राक्षसी शक्तिया विद्यमान रहती है। चातुर्मास में देव प्राण सुस्त हो जाते है तथा राक्षस प्राण जाग्रत हो जाते है। चातुर्मास के दौरान राक्षस प्राण बलशाली होने के कारण ही कई प्रकार की बीमारिया, रोग, बाढ़ आदि स्थितिया बनती है। अत: इसी स्थिति में मांगलिक कार्य करना शुभ नहीं होता है। हमारे शारीर में पार्थिव और सौर प्राण विद्यमान रहते है। ये दोनों प्राण सजग रहने पर ही हम किसी कार्य में संलग्न हो सकते है। प्रत्वी को स्त्री की संज्ञा दी गयी है और यह विष्णु जी की पत्नी अर्थात लक्ष्मी है। चातुर्मास के दौरान पृथ्वी रजस्वला रहती है। चारो तरफ घने बादल छाये रहते है और नदी नालो में गन्दा पानी बहता रहता है। इसी स्थिति में मांगलिक कार्य और विशेष कर विवाह शिलान्यास गृहप्रवेश व्रतारंभ आदि अनेक कार्य निषिद्ध रहते है। जब पृथ्वी राज्स्वलाकाल में होती है तो देवस्वरूप भगवान विश्राम मुद्रा में रहते है, इसीलिए यह काल मांगलिक कार्यो के लिए वर्जित माना जाता है। धर्म् शास्त्रों के अनुसार इस काल में किसी भी मांगलिक कार्य में स्त्री सहभागी नहीं बन सकती है। हर मांगलिक कार्य यज्ञ के बिना संपन्न नहीं हो सकता है। और यज्ञ अग्नि के बिना कदापि संपन्न नहीं हो सकता है। इस कारण इस काल में किये गए विवाह से उत्पन्न संताने तेजहीन, रोगी तथा अप यश का कारण बनती है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में एकादशी पूर्णिमा से चार दिन पूर्व आती है और चन्द्रमा का अनुपातिक अधिक भाग रात्रि में विचरण करने लगता है। चन्द्र प्राण देव प्राण ही होते है। अत: मांगलिक उत्सवो, मुहूर्तो आदि की शुरुआत के लिए द्वार खुल जाते है। देवोत्थापन के बाद मार्गशीष आता है और यह सर्वश्रेष्ठ माह कहलाता है, क्योकि इसमें देव प्राण सक्रीय रहते है। यद्यपि मार्गशीष माह विवाहित युगल के लिए प्रारंभ में संघर्ष भरा रहता है परन्तु दाम्पत्य जीवन का भविष्य उज्जवल रहता है। विवाहोपरांत निरुत्साहित युगल तथा अविवाहित कन्या या पुरुष अपनी कामना की सिद्धि के लिए इस दिन व्रत उपवास रखकर पंचामृत का सेवन करे तो प्रसन्नता प्राप्त होगी।